अभिषेक शांतिधारा

शान्तिधारा

ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वंवं
मंमं हंहं संसं तंतं पंपं झंझं
झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय-द्रावय
नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ओं ह्रीं क्रों अस्माकं पापं खण्डय खण्डय
जहि-जहि दह-दह पच-पच पाचय पाचय
ओं नमो अर्हन् झं झ्वीं क्ष्वीं हं सं झं वं ह्व: प: ह:
क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्ष: क्ष्वीं
ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्र:
द्रां द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठ: ठ:
अस्माकं ———–
श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु कान्तिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा।
एवं अस्माकं ———— कार्यसिद्ध्यर्थं सर्वविघ्न-निवारणार्थं
श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञपरमेष्ठि-परमपवित्राय नमो नम:।
अस्माकं —————– श्री तीर्थंकरभक्ति- प्रसादात्
सद्धर्म-श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु, स्वशिष्य-परशिष्यवर्गा: प्रसीदन्तु न: |

ओं वृषभादय: श्रीवर्द्धमानपर्यन्ताश्चतुर्विंशत्यर्हन्तो भगवन्त:
सर्वज्ञा: परममंगल (धारागत तीर्थंकर का नाम) नामधेया:
अस्माकं इहामुत्र च सिद्धिं तन्वन्तु,
सद्धर्म कार्येषु च इहामुत्र च सिद्धिं प्रयच्छन्तु न: |

ओं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीमत्पार्श्वतीर्थंकराय
श्रीमद्रत्नत्रयरूपाय दिव्यतेजोमूर्त्तये प्रभामण्डलमण्डिताय
द्वादशगणसहिताय अनन्तचतुष्टयसहिताय समवसरण- केवलज्ञान-लक्ष्मीशोभिताय
अष्टादश-दोषरहिताय षट्-चत्वारिंशद्-गुणसंयुक्ताय
परम-पवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने
परमसुखाय त्रैलोक्यमहिताय अनंत-संसार-चक्रप्रमर्दनाय
अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखास्पदाय त्रैलोक्य वशं कराय
सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे उपसर्ग-विनाशनाय
घातिकर्म क्षयं कराय अजराय अभवाय —————–
नामधेयानां व्याधिं घ्नन्तु।
श्री-जिनाभिषेकपूजन-प्रसादात् —————– सेवकानां
सर्वदोष-रोग-शोक-भय-पीड़ा-विनाशनं भवतु |

ओं नमोऽर्हते भगवते प्रक्षीणाशेष-दोष-कल्मषाय दिव्य-तेजोमूर्तये
श्रीशान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्व-विघ्न-प्रणाशनाय
सर्वरोगापमृत्यु-विनाशनाय सर्वपरकृत क्षुद्रोपद्रव-विनाशनाय सर्वारिष्ट-शान्ति-कराय
ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नम:
मम सर्वविघ्न-शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं-पुष्टिं कुरु-कुरु स्वाहा।
मम कामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
रतिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
बलिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
क्रोधं पापं बैरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
अग्नि-वायुभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वशत्रु-विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वोपसर्गं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व- विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व राज्य-भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वचौर-दुष्टभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व-सर्प-वृश्चिक-सिंहादिभयंछिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व ग्रह -भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वदोषं व्याधिं डामरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वपरमंत्रं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वात्मघातं परघातं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व शूलरोगं कुक्षिरोगं अक्षिरोगं शिरोरोगं ज्वररोगं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वनरमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वगजाश्व-गो-महिष-अज-मारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व शस्य-धान्य-वृक्ष-लता-गुल्म-पत्र-पुष्प-फलमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वराष्ट्रमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वक्रूर-वेताल-शाकिनी-डाकिनी-भयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व वेदनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वमोहनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वापस्मारिं छिन्धि -छिन्धि भिन्धि भिन्धि!
अस्माकम् अशुभकर्म-जनित-दु:खानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
दुष्टजन-कृतान् मंत्र-तंत्र-दृष्टि-मुष्टि-छल-छिद्रदोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वदुष्ट-देव-दानव-वीर-नर-नाहर-सिंह-योगिनी-कृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व अष्टकुली-नागजनित-विषभयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वस्थावर-जंगम-वृश्चिक-सर्पादिकृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वसिंह-अष्टापदादि कृतदोषान् छिन्धि छिन्धिभिन्धि भिन्धि!
परशत्रुकृत-मारणोच्चाटन-विद्वेषण -मोहन-वशीकरणादि दोषान् छिन्धि–छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
ओं ह्रीं अस्मभ्यं चक्र-विक्रम-सत्त्व-तेजो-बल -शौर्य-शान्ती: पूरय पूरय!
सर्वजीवानंदनं जनानंदनं भव्यानंदनंगोकुलानंदनं च कुरु कुरु!
सर्व राजानंदनं कुरु कुरु!
सर्वग्राम-नगर खेडा-कर्वट-मटंब-द्रोणमुख-संवाहनानंदनं कुरु-कुरु! सर्वानंदनं कुरु-कुरु स्वाहा!

अनुष्टुब्छन्दः

यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधि-व्यसन-वर्जितम् |
अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते ||
श्रीशान्तिरस्तु ! <तथास्तु!> शिवमस्तु ! <तथास्तु!> जयोस्तु! <तथास्तु!>
नित्यमारोग्यमस्तु! <तथास्तु!> अस्माकं पुष्टिरस्तु ! <तथास्तु!>
समृद्धिरस्तु ! < तथास्तु!>कल्याणमस्तु ! <तथास्तु!> सुखमस्तु ! <तथास्तु!>
अभिवृद्धिरस्तु ! <तथास्तु!> दीर्घायुरस्तु ! <तथास्तु!>
कुलगोत्र धनानि सदा सन्तु ! <तथास्तु!>
सद्धर्म-श्री-बल-आयु:- आरोग्य-ऐश्वर्य-अभिवृद्धिरस्तु |

ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अ सि आ उ सा अनाहतविद्यायै णमो अरिहंताणं ह्रौं सर्व शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा |

स्रग्धराछन्दः

आयुर्वल्ली विलासं सकलसुखफलैर्द्राघयित्वाऽऽश्वनल्पम् |
धीरं वीरं शरीरं निरुपमुप-नयत्वातनोत्वच्छकीर्तिम्।।
सिद्धिं वृद्धिं समृद्धिं प्रथयतु तरणि: स्फूर्यदुच्चै: प्रतापं।
कान्तिं शान्तिं समाधिं वितरतु भवतामुत्तमा शान्तिधारा।।
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र-सामान्य-तपोधनानाम्।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र!!
|| इति वृहत्-शांतिधारा ||
*****

मंगलाष्टक स्तोत्र

श्री पंचपरमेष्ठी वंदन

अरिहन्तो-भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा:,
आचार्या: जिनशासनोन्नतिकरा: पूज्या उपाध्यायका:|
श्रीसिद्धान्त-सुपाठका: मुनिवरा: रत्नत्रयाराधका:,
पंचैते परमेष्ठिन: प्रतिदिनं कुर्वन्तु ते मंगलम्||

श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा
भास्वत्पाद – नखेन्दव: प्रवचनाम्भोधीन्दव: स्थायिन:|
ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठका: साधव:,
स्तुत्या योगीजनैश्च पंचगुरव: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||१||
अर्थ- शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरूपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है। और जो प्रव- चन रूप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा हैं एवं योगिजन जिनकी स्तुति करते रहते हैं, ऐसे अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी तुम्हारे पापों को क्षालित करें तुम्हें सुखी करें ।। १ ।।

सम्यग्दर्शन – बोध – वृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं,
मुक्तिश्री – नगराधिनाथ – जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रद:|
धर्म-सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्रयालयं,
प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ||२||

नाभेयादि जिनाधिपास्त्रिभुवन ख्याताश्चतुर्विंशति:,
श्रीमन्तो भरतेश्वर – प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश |
ये विष्णु – प्रतिविष्णु – लांगलधरा: सप्तोत्तरा विंशति:,
त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषा: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||३||
अर्थ- तीनों लोकों में विख्यात और बाह्य तथा आभ्यन्तर लक्ष्मी सम्पन्न ऋषभनाथ भगवान आदि चौबीस तीर्थंकर, श्रीमान् भरतेश्वर आदि १२ चक्रवर्ती, नव नारायण नव प्रतिनारायण और नव बलभद्र ये ६३ शलाका महापुरुष तुम्हारे पापों का क्षय करें और तुम्हें सुखी करें ।। ३ ।।

ये सर्वोपधिऋद्धयः सुतपसां वृद्धिंगताः पञ्च ये,
ये चाष्टांगमहानिमित्त – कुशलाश्चाष्टौ वियच्चारिणः ।
पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वराः,
सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।४।।
अर्थ- सभी औषधि ऋद्धिधारी, उत्तम तप ऋद्धिधारी, अवधृत क्षेत्र से भी दूरवर्ती विषय के आस्वादन दर्शन स्पर्शन घ्राण और श्रवण की समर्थता की ऋद्धि के धारी, अष्टाङ्ग महानिमित्त विज्ञता की ऋद्धि के धारी, आठ प्रकार की चारण ऋद्धि के धारी, पांच प्रकार के ज्ञान की ऋद्धि के धारी, तीन प्रकार के बलों की ऋद्धि के धारी और बुद्धि-ऋद्धीश्वर, ये सातों जगत्पूज्य गणनायक तुम्हारे पापों को क्षालित करें और तुम्हें सुखी बनावें बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र के भेद से ऋद्धियों के आठ भेद हैं ।।४।।

ज्योतिर्व्यतरभावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः,
जम्बूशाल्मलि चैत्यशाखिषु तथा वक्षार – रूप्याद्रिषु ।
इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे,
शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।५।।
अर्थ- ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी और वैमानिकों के आवासों के, मेरुओं, कुलाचलों, जम्बू वृक्षों और शाल्मलिवृक्षों, वक्षारों, विजयार्ध पर्वतों इष्वाकार पर्वतों, कुण्डल पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप, और मानुषोत्तर पर्वत (तथा रुचिक वर पर्वत) के सभी अकृत्रिम जिन चैत्यालय तुम्हारे पापों का क्षय करें और तुम्हें सुखी बनावें ।।५।।

कैलासे वृषभस्य निर्वृति मही वीरस्य पावापुरी,
चम्पायां वसुपूज्य-सज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम्
शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरेनेमीश्वरस्यार्हतो,
निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।६।।
अर्थ- भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि-कैलाश पर्वत पर है। महावीर स्वामी की पावापुर में है। वासुपूज्य स्वामी की चम्पापुरी में है। नेमिनाथ स्वामी की ऊर्जयन्त पर्वत के शिखर पर और शेप बीस तीर्थकरों की निर्वाणभूमि श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर हैं. जिनका अतिशय और वैभव विख्यात है। ऐसी ये सभी निर्वाण भूमियाँ तुम्हें निष्पाप बनादें और तुम्हें सुखी करें ।।६।।

यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो,
यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् ।
यः कैवल्यपुर – प्रवेशमहिमा सम्पादितः स्वर्गिभिः
कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।७।।
अर्थ- तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और कैवल्यपुर प्रवेश (निर्वाण) कल्याणक के देवों द्वारा सम्भावित महोत्सव तुम्हें सर्वथा माङ्गलिक रहें ।।७।।

सर्पोहार-लता भवति असिलता, सत्पुष्पदामायते,
सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपु:|
देवा: यान्ति वशं प्रसन्नमनस: किं वा बहु ब्रूमहे,
धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगै: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||८||
अर्थ- धर्म के प्रभाव से सर्प माला बन जाता है, तलवार फूलों समान कोमल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है, शत्रु प्रेम करने वाला मित्र बन जाता है और देवता प्रसन्न मन से धर्मात्मा के वश में हो जाते हैं। अधिक क्या कहें धर्म से ही आकाश से रत्नों की वर्षा होने लगती है वही धर्म तुम सबका कल्याण करे ।।८।।

इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपत्करम्
कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणांमुपः ।
ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनै – र्धर्मार्थकामान्विता,
लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ।।९।।
अर्थ- सौभाग्यसम्पत्ति को प्रदान करने वाले इस श्री जिनेन्द्र- मङ्गलाष्टक को जो सुधी तीर्थंकरों के पंचकल्याणक के महोत्सवों के अवसर पर तथा प्रभातकाल में भावपूर्वक सुनते और पढ़ते हैं, वे सज्जन धर्म, अर्थ और काम से समन्वित लक्ष्मी के आश्रय बनते हैं और पश्चात् अविनश्वर मुक्तिलक्ष्मी को भी प्राप्त करते हैं ।।९।।

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