श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा।
जिनके जीवन की हर चर्यावन पडी स्वयं ही नवगाथा।।
जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली-गली।
जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझायी हृदय कली।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर सम्बोषट आव्हानन।अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
अत्र मम सन्निहितो भवः भव वषद सन्निध्किरणं।
सांसारिक विषयों में पडकर, मैंने अपने को भरमाया।
इस रागद्वेष की वैतरणी से, अब तक पार नहीं पाया।।
तब विद्या सिन्धु के जल कण से, भव कालुष धोने आया हूँ।
आना जाना मिट जाये मेरा, यह बन्ध काटने आया हूँ।।
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्व स्वाहा।
क्रोध अनल में जल जल कर, अपना सर्वस्व लुटाया है।
निज शान्त स्वरूप न जान सका, जीवन भर इसे भुलाया है।।
चन्दन सम शीतलता पाने अब, शरण तुम्हारी आया हूँ।
संसार ताप मिट जाये मेरा, चन्दन वन्दन को जाया हूँ।।
संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्व स्वाहा।
जड को न मैंने जड समझा, नहिं अक्षय निधि को पह्चाना।
अपने तो केवल सपने थे, भ्रम और जगत को भटकाना।।
चरणों में अर्पित अक्षय है, अक्षय पद मुझको मिल जाये।
तब ज्ञान अरुण की किरणों से, यह हृदय कमल भी खिल जाये।।
अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्व स्वाहा।
इस विषय भोग की मदिरा पी, मैं बना सदा से मतवाला।
तृष्णा को तृप्त करें जितनी, उतनी बढती इच्छा ज्वाला।।
मैं काम भाव विध्वंस करू, मन सुमन चढाने आया हूँ।
यह मदन विजेता बन ना सकें, यह भाव हृदय से लाया हूँ।।
कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्व स्वाहा।
इस क्षुदा रोग की व्याथा कथा, भव भव में कहता आया हूँ।
अति भक्ष-अभक्ष भखे फिर भी, मन तृप्त नहीं कर पाया हूँ।।
नैवेद्य समर्पित कर के मैं, तृष्णा की भूख मिटाउँगा।
अब और अधिक ना भटक सकूँ, यह अंतर बोध जगाउँगा।।
क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य निर्व स्वाहा।
मोहान्ध्कार से व्याकुल हो, निज को नहीं मैंने पह्चाना।
मैं रागद्वेष में लिप्त रहा, इस हाथ रहा बस पछताना।।
यह दीप समर्पित है मुनिवर, मेरा तम दूर भगा देना।
तुम ज्ञान दीप की बाती से, मम अन्तर दीप जला देना।।
मोहांधकार विनाशनाय दीपम् निर्व स्वाहा।
इस अशुभ कर्म ने घेरा है, मैंने अब तक यह था माना।
बस पाप कर्म तजपुण्य कर्म को, चाह रहा था अपनाना।।
शुभ-अशुभ कर्म सब रिपुदल है, मैं इन्हें जलाने आया हूँ।
इसलिये अब गुरु चरणों में, अब धूप चढाने आया हूँ।।
अष्टकर्म दहनाय धूपम् निर्व स्वाहा।
भोगों को इतना भोगा कि, खुद को ही भोग बना डाला।
साँध्य और साधक का अंतर, मैंने आज मिटा डाला।।
मैं चिंतानन्द में लीन रहूँ, पूजा का यह फल पाना है।
पाना था जिनके द्वारा, वह मिल बैठा मुझे ठिकाना है।।
मोक्षफल प्राप्ताय फलम् निर्व स्वाहा।
जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा।
चारों गतियों की ठोकर को, खाने में अभ्यस्त रहा।।
मैं हूँ स्वतंत्र ज्ञाता दृष्टा, मेरा पर से क्या नाता है।
कैसे अनर्ध पद जाउँ, यह अरुण भावना भाता हूँ।।
अनर्ध्य पद प्राप्ताय अधर्म निर्व स्वाहा।
जयमाला
हे गुरुवर तेरे गुण गाने, अर्पित हैं जीवन के क्षण क्षण।
अर्चन के सुमन समर्पित हैं, हरषाये जगती के कण कण ॥१॥
कर्नाटक के सदलगा ग्राम में, मुनिवर तुमने जन्म लिया।
मल्लप्पा पूज्यपिताश्री को, अरु श्रीमति को कृतकृत्य किया ॥२॥
बचपन के इस विद्याधर में, विद्या के सागर उमड़ पड़े।
मुनिराज देशभूषण से तुम, व्रत ब्रह्मचर्य ले निकल पड़े ॥३॥
आचार्य ज्ञानसागर ने सन्, अड़सठ में मुनि पद दे डाला।
अजमेर नगर में हुआ उदित, मानों रवि तम हरने वाला ॥४॥
परिवार तुम्हारा सबका सब, जिन पथ पर चलने वाला है।
वह भेद ज्ञान की छैनी से, गिरि कर्म काटने वाला है ॥५॥
तुम स्वयं तीर्थ से पावन हो, तुम हो अपने में समयसार।
तुम स्याद्वाद के प्रस्तोता, वाणी-वीणा के मधुर तार ॥६॥
तुम कुन्दकुन्द के कुन्दन से, कुन्दन-सा जग को कर देने।
तुम निकल पड़े बस इसीलिए,भटके अटकों को पथ देने ॥७॥
वह मन्द मधुर मुस्कान सदा, चेहरे पर बिखरी रहती है।
वाणी कल्याणी है अनुपम, करुणा के झरने झरते हैं ॥८॥
तुममें कैसा सम्मोहन है, या है कोई जादू टोना।
जो दर्श तुम्हारे कर जाता, नहिं चाहे कभी विलग होना ॥९॥
इस अल्प उम्र में भी तुमने, साहित्य सृजन अति कर डाला।
जैन गीत गागर में तुमने, मानो सागर भर डाला ॥१०॥
है शब्द नहीं गुण गाने को, गाना भी मेरा अनजाना।
स्वर ताल छन्द मैं क्या जानूँ, केवल भक्ति में रम जाना ॥११॥
भावों की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हूँ।
मेरा सारा दुख दर्द हरो, यह अर्घ भेंटने लाया हूँ ॥१२॥
हे तपो मूर्ति! हे आराधक! हे योगीश्वर! हे महासन्त!।
है ‘अरुण’ कामना देख सके, युग-युग तक आगामी बसन्त॥१३॥
ओं हूं श्री आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपामि
समयसार का सार बसा है, गुरु आपके चेतन में।
स्वानुभूति के निर्मल झरने, झरते रहते हैं मन में ।।
विद्या गुरु सम सौम्य छवि लख, लगता ऋद्धिधारी हो ।
परम दयालु करुणासागर, गणधर सम उपकारी हो ॥ 1 ॥
समयसागराचार्य गुरुवर, जिनशासन के गौरव हैं।
नगर- नगर में गुरु चर्या की, फैली अनुपम सौरभ है ॥
मेरे दर का कोना-कोना, गुरुवर तुम्हें पुकार रहा।
लगा आज तब दर पर आकर, स्वप्न मेरा साकार हुआ ॥2 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वानम् ।
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सविधीकरणम् ।
द्रव्यार्पण
विद्यासिन्धु में नयन मूंदकर, नित्य तैरते रहते हो ।
‘ओम् शांति कहकर हे गुरुवर, निजातमा में रमते हो ॥
समयसागराचार्य आपकी छवि से समता रस बरसे।
श्रद्धा जल अर्पण करने को, भक्तजनों का मन तरसे ॥1 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल….।
अज्ञानी तन शीतल करने, चंदन लेप लगाता है।
भक्त आपके श्री चरणों में, शीतलता को पाता है ।।
समयसागराचार्य गुरु की, चन्दन-सी शीतल वाणी ।
भव भव का सन्ताप मिटाती, परम प्रमाणी कल्याणी ॥2 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन …. ।
अक्षय सुख पाने हे गुरुवर, विद्या गुरु का पथ भाया ।
दर्शन करके कहें भव्यजन, शिवपुर का यह रथ आया ॥
समयसागराचार्य गुरु के पद में अक्षत लाया हूँ ।
नश्वर में सुख कभी न मानूँ, यह वर पाने आया हूँ ॥3 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् …. ।
स्वभाव की सामर्थ्य जानकर, स्वात्म ब्रह्म में लीन हुए।
गुरु सम्मुख आ कामदेव के, तीक्ष्ण बाण भी क्षीण हुए ||
समयसागराचार्य गुरु ने सब विकार पर वार किया।
शरणागत को एक नजर से, गुरु आपने तार दिया ॥ 4 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं …. ।
मूलाचार ग्रन्थ अनुसारी, दोष रहित आहार करें।
निराहार पद विदेह पाने, यतिवर आत्म बिहार करें ||
समयसागराचार्य चरण में, चरु चढ़ाने लाया हूँ ।
गहन साधना देख आपकी, शीश झुकाने आया हूँ || 5 ||
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ….. ।
विद्या गुरु से ज्ञान दीप ले, निज आतम गृह उजियारा |
भेदज्ञान के प्रकाश द्वारा, मिटा रहे हैं अंधियारा ॥
समयसागराचार्य गुरु की आरति करने आया हूँ ।
रत्नत्रय का प्रकाश पाने, भाव हृदय में लाया हूँ ॥6॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप…..।
कर्मफलों में अनासक्त हे सच्चे योगी तुम्हें नमन ।
इक या दो भव में पा लेंगे, निश्चित गुरुवर मोक्ष गगन ||
समयसागराचार्य मुनीश्वर, छाँव मिले तव चरणन की।
तीन योग से महिमा गाऊँ, हे गुरुवर तव गुण गण की ॥7॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अष्ट कर्मदहनाय धूप ….. ।
रत्नत्रय तरुवर पर बैठे, मुक्तीफल के प्रत्याशी ।
तुम सम बन जाने की गुरुवर, मेरी भी आतम प्यासी ॥
समयसागराचार्य गुरु मैं, आशा लेकर आया हूँ ।
नरभव सफल बनाने पावन, श्रद्धा का फल लाया हूँ ॥ 8 ॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल ….. ।
पद प्रसिद्धि की नहीं कामना, अनर्घ्य पद ही मैं चाहूँ ।
अष्ट द्रव्य का अर्घ्य चढ़ाकर, मोक्ष पथिक मैं बन जाऊँ ॥
समयसागराचार्य मुनीश्वर, धन्य आपकी समता है।
शिवपथगामी श्री चरणों में, श्रद्धा से सिर झुकता है ॥9॥
ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अ…..
जयमाला
ज्ञानोदय छन्द
जयवन्तों आचार्यवर्य गुरु, जब तक रवि शशि नभ में है।
जिनशासन जयशील रहे नित, यही भावना मन में है ।
शरद पूर्णिमा की शुभ तिथि में, ग्राम सदलगा जन्म लिया।
बचपन से थे शान्त इसलिए, शान्तिनाथ शुभ नाम दिया ॥1 ॥
जैसा नाम रखा वैसा ही काम आपने दिखा दिया |
शान्त स्वरूपोऽहं का अद्भुत, सूत्र आपने सिखा दिया ||
द्रोणागिरी श्रीसिद्ध क्षेत्र पर ‘विद्या’ गुरु से दीक्षा ली।
सिद्ध शुद्ध पथ को पाने की, श्री यतिवर से शिक्षा ली ॥ 2 ॥
विद्या गुरु के ज्येष्ठ श्रेष्ठतम, शिष्य आप कहलाते हो ।
ज्ञान ध्यान रत निश्छल मूरत, भक्तों के मन भाते हो ।
तिलतुष मात्र परिग्रह ना है, सच्चे हैं निर्ग्रन्थ यति । ऐ
सा लगता सुन आये हैं, तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि ॥3॥
आत्मप्रशंसा कभी न सुनते, गुरु पर पूर्ण समर्पण है।
गुरु महिमा सुन प्रसन्न होते, गुरु आज्ञा ही धड़कन है ॥
वीरप्रभु औ गौतम जैसे, गुरु शिष्य द्वय धन्य हुए।
योग्य शिष्य को आचारज पद, दे गुरुवर अविकल्प हुए ॥ ॥
छत्तीस मूलगुणों के पालक, मेरु समान अकम्प रहें।
दृष्टि में सब समान चाहें, राजा हो या रंक रहे ।
तव वात्सल्य सरोवर तट आ, भव्य कमल खिलकर महके ।
पर प्रपञ्च से दूर रहें गुरु, दिव्यदृष्टि निज में धर के ॥5॥
अल्प बोलकर सैद्धान्तिक या आध्यात्मिक गुरू वाणी है।
चातक सम भविजन को लगती, अमृत सम कल्याणी है ॥
शब्द बूँद सम गुण समुद्र सम, कैसे पूर्ण करूँ वर्णन ।
अतः हृदय के भावों से ही, यह जयमाला है अर्पण ॥16॥
दोहा
शरण आपकी प्राप्त कर, भूल गया संसार।
ऐसे सच्चे सन्त को, प्रणयूँ बारम्बार ॥ 7 ॥
ॐ ह्रूं श्री १०८ आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय जयमाला पूर्णा…।
घत्ता
श्री समयसिन्धु की गणनायक की, जो भवि पूजा नित्य करें ।
सब विघ्न नशावें, शिवसुख पावें, ‘विद्यासागर पूर्ण’ करें ॥ ॥